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देवता: मित्रावरुणौ ऋषि: मेधातिथिः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

ऋ꣣ते꣢न꣣ या꣡वृ꣢ता꣣वृ꣡धा꣢वृ꣣त꣢स्य꣣ ज्यो꣡ति꣢ष꣣स्प꣡ती꣢ । ता꣢ मि꣣त्रा꣡वरु꣢꣯णा हुवे ॥७९४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

ऋतेन यावृतावृधावृतस्य ज्योतिषस्पती । ता मित्रावरुणा हुवे ॥७९४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋते꣡न꣢ । यौ । ऋ꣣तावृ꣡धौ꣢ । ऋ꣣त । वृ꣡धौ꣢꣯ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । ज्यो꣡ति꣢꣯षः । पती꣢꣯इ꣡ति꣢ । ता । मि꣡त्रा꣢ । मि꣡ । त्रा꣢ । व꣡रु꣢꣯णा । हु꣣वे ॥७९४॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 794 | (कौथोम) 2 » 1 » 7 » 2 | (रानायाणीय) 3 » 2 » 2 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में पुनः वही विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—प्राण-उदान के पक्ष में। (यौ) जो (ऋतेन) प्राण-क्रिया एवं उदान-क्रिया रूप सत्य व्यापार से (ऋतावृधौ) सत्यक्रियायुक्त मनोमय एवं विज्ञानमय कोशों को बढ़ानेवाले, (ऋतस्य) ऋतम्भरा प्रज्ञा, एवं (ज्योतिषः) ज्योतिष्मती वृत्ति के (पत्ती) रक्षक हैं, (ता) उन (मित्रावरुणा) प्राण-उदान को, मैं (हुवे) पुकारता हूँ, स्वस्थरूप से शरीर में प्रवृत्त करता हूँ ॥ द्वितीय—ब्रह्म-क्षत्र के पक्ष में। (यौ) जो (ऋतेन) सत्य ज्ञान और सत्य क्षात्र-बल से (ऋतावृधौ) सत्यमय राष्ट्र को बढ़ानेवाले और (ऋतस्य ज्योतिषः) सत्यरूप ज्योति के (पती) रक्षक हैं, (ता) उन (मित्रावरुणा) ब्राह्मण और क्षत्रियों को, मैं (हुवे) पुकारता हूँ ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जैसे प्राण और उदान से शरीर का स्वास्थ्य, वैसे ही ब्राह्मण और क्षत्रियों से राष्ट्र का स्वास्थ्य चिरस्थायी होता है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनस्स एव विषयो वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—प्राणोदानपक्षे। (यौ ऋतेन) प्राणनोदाननरूपेण सत्यव्यापारेण (ऋतावृधौ) ऋतयोः सत्यक्रियायुक्तयोः मनोमयविज्ञानमयकोशयोः वर्द्धकौ, (ऋतस्य) ऋतम्भरायाः प्रज्ञायाः (ज्योतिषः) ज्योतिष्मत्याः वृत्तेश्च (पती) रक्षकौ स्तः (ता) तौ (मित्रावरुणा) मित्रावरुणौ प्राणोदानौ, अहम् (हुवे) आह्वयामि, स्वस्थरूपेण शरीरे प्रवर्तयामि ॥ द्वितीयः—ब्रह्मक्षत्रपक्षे। (यौ ऋतेन) सत्येन ज्ञानेन सत्येन क्षात्रबलेन च (ऋतावृधौ) सत्यस्य राष्ट्रस्य वर्धकौ, (ऋतस्य ज्योतिषः) सत्यरूपस्य प्रकाशस्य (पती) रक्षकौ स्तः, (ता) तौ (मित्रावरुणा) मित्रावरुणौ ब्राह्मणक्षत्रियौ, अहम् (हुवे) आह्वयामि ॥२॥३

भावार्थभाषाः -

यथा प्राणोदानाभ्यां देहस्य स्वास्थ्यं तथा ब्राह्मणक्षत्रियाभ्यां राष्ट्रस्य स्वास्थ्यं चिरस्थायि जायते ॥२॥

टिप्पणी: २. ऋ० १।२३।५। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं सूर्यवायुपक्षे व्याचष्टे।